अमृता देवी बिश्नोई: पर्यावरण की रक्षा में अडिग नायक

थार के मरुस्थल का 60 प्रतिशत हिस्सा राजस्थान में है। यहाँ औसत वार्षिक वर्षा अतिन्यून तथा गर्मियों में तापमान 50 डिग्री सेंटीग्रेड के साथ धूल-भरी गर्म हवाएं चलती है। यहाँ कंटीले तथा झाड़ीदार पेड़-पौधे है उन्ही में के एक महत्वपूर्ण वृक्ष खेजड़ी (प्रोसोपिस सिनेरिया) है। इसी वृक्ष के बचने के प्रयास में साल 1730 में खेजड़ली गांव में 363 लोग शहीद हो गए अमृता देवी बिश्नोई: पर्यावरण की रक्षा में अडिग नायक उनमे से एक थी।

बिश्नोई समाज :-

बिश्नोई समुदाय थार के मरुस्थल में राजस्थान का एक विशेष समुदाय है जिसे जीव -जंतुओं तथा पेड़ पौधों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील माना जाता है। इस समाज के लोग भारत के प्रथम पर्यावरणविद भी माने जाते है। बिश्नोई समुदाय का नाम 29 ( बीस नौ ) नियमों से लिया गया है जो इनके आध्यात्मिक गुरु जम्बेश्वर जी ने 1500 के दशक में स्थापित किये थे। इन्ही 29 नियमों में एक नियम ये भी है कि “हरे पेड़ पौधों को मत काटो और पर्यावरण को बचाओ” इसी नियम के चरितार्थ करते हुए 1730 ई. में इस समुदाय की एक महत्वपूर्ण महिला तथा उसके साथ लगभग 363 लोगो में खेजड़ी वृक्ष की रक्षा के लिए अपने प्राणों को त्याग दिया।

कहानी महान बलिदान की :-

अमृता देवी बिश्नोई: पर्यावरण की रक्षा में अडिग नायक

साल 1730 में जोधपुर के राजा अभयसिंह ने मेहरानगढ़ किले में राजमहल के निर्माण के लिए अपने मंत्री गिरधरदास भंडरी को लकड़ी लाने का आदेश दिया। मंत्री गिरधरदास भंडरी 12 सितम्बर 1730 की सुबह अपने सिपाहीयों तथा मजदूरों के साथ पास ही के गांव खेजड़ली में लकड़ी काटने पहुंचा। उन्हें देख गांव वालों ने उनके हरी लकड़ी काटने का विरोध प्रकट किया तथा  लेकिन राजा के सिपाही तथा मजदुर नहीं माने तो अमृता देवी नाम की बिश्नोई महिला ने राजा के सिपाहीयों को ललकारते हुए कहा कि मेरे जीते जी आप इन पौधों को नहीं काट सकते और खेजड़ी वृक्ष के चिपक गई। इसके बाद राजा के क्रूर सिपाहीयों ने अमृता देवी का गाला काट दिया। इसी संहार को देखकर अमृता देवी की तीन बेटियां आसू, रत्नी और भागू बाई भी अपनी माँ के नक्शे कदम पर चलते हुए पेड़ों के चिपक गई और सैनिकों ने उनको भी काट दिया। अमृता देवी ने मंत्री को ललकारते हुए कहा था कि –

जाम्भाजी री सौगन म्हाने हरयो रूंख नहीं बाढ़ण द्यूँली म्हूँ थाने

  तू मंत्री है जोधाणे रो तो म्हूँ बिश्नोई री बेटी हूँ

  पत्तों ही नहीं  बाढ़ण द्यूँ म्हूँ रूंख रूखाळी बैठी हूँ

  तूं समझे आंरी पीड़ कांई तू तो गुलाम है रोटी रो “

यह खबर पूरे गांव के साथ साथ आस-पास के गावों में भी पहुँच गई जिसे सुन बिश्नोई समाज के बहुत सारे लोग पेड़ काटने के विरोध में पेड़ों के चिपक गए और सिपाही लोगों को काटते रहे इस नरसंहार में 49 गावों के 363 लोग पेड़ों की रक्षा करते हुए शहीद हो गए। अतः यह कहा जा सकता है की चिपको आंदोलन की शुरुआत बिश्नोई समाज के इसी साहसपूर्ण कार्य से हुई। बिश्नोई समुदाय के गुरु जाम्भोजी महाराज ने इसी परिदृश्य में कहा है कि –

सिर साटे रूंख रहे, तो भी सस्तो जाण”

अर्थात एक सिर के बदले अगर एक पेड़ भी बचता है तो भी सिर की कीमत काम है।

इस घटना का पता जब राजा अभयसिंह को लगा तो उन्हें आघात पहुंचा तथा उन्होंने बिश्नोई समाज से क्षमा मांगी और एक ताम्र पत्र जारी किया जिसमें बिश्नोई बाहुल्य गावों में जीवों के शिकार तथा पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी।

 

पेड़ों की रक्षा करते हुए मारे गए बिश्नोई लोगो को खेजड़ली गांव में दफनाया गया। अमृता देवी बिश्नोई का स्मृति स्थल बनाया गया जहाँ प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल दशमी को विशाल मेला लगता है जिसमें लोग इनके बलिदान को याद करते है। राजस्थान सरकार ने अमृता देवी बिश्नोई के बलिदान को याद करते हुए साल 1994 में “अमृता देवी स्मृति पुरस्कार” की शुरुआत की। इन पुरुस्कार को तीन स्तरों पर वितरित किया जाता है जिसमें प्रथम दो पुरस्कार व्यक्तिगत तथा तीसरा पुरस्कार किसी संस्था को दिया जाता है जो निम्न है –

  1. वन संरक्षण
  2. वन्य जीव संरक्षण
  3. वन विकास एवं वन्य जीव संरक्षण

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

प्रश्न : अमृता देवी बिश्नोई पुरस्कार राशि कितनी है ?

उत्तर : वन, विकास एवं वन्यजीव संरक्षण के लिए किसी निजी एवं सार्वजानिक क्षेत्र की संस्था को 50,000/- रूपए नकद एवं एक प्रशस्ति पत्र

वन संरक्षण के विषयान्तर्गत सर्वोच्च कार्य करने वाले व्यक्ति को 25,000/- रूपए नकद एवं एक प्रशस्ति पत्र

वन्यजीव संरक्षण के क्षेत्र में सर्वोत्तम कार्य करने वाले व्यक्ति को 25,000/- रूपए नकद एवं एक प्रशस्ति पत्र

प्रश्न : अमृता देवी बिश्नोई पुरुस्कार की शुरुआत कब हुई ?

उत्तर : राजस्थान सरकार ने 1994 में वहीं मध्यप्रदेश सरकार तथा केंद्र सरकार ने  शुरुआत 2001 में की।

 

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