मंदिर एक धार्मिक इमारत है, जहां पूजा-अर्चना की जाती है अर्थात मंदिर अराधना और पूजा-अर्चना के लिए निश्चित की हुई जगह या देवस्थान है। यहाँ किसी आराध्य देव के प्रति ध्यान या चिंतन कर पूजा-अर्चना की जाती है। इस ब्लॉग पोस्ट में हम राजस्थान के प्रमुख मंदिर का विस्तार से अध्ययन करेंगे। एक मंदिर स्थापत्य कला का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है जिसे विभिन्न शैलिओं में बनाया जाता है जी निम्न प्रकार है –
नागर शैली –
यह उतरी भारत की मंदिर शैली है। इस शैली में मंदिर चबूतरे पर होता है जिसकी छत समतल होती है और उसके ऊपर गोल गुम्बदनुमा सरंचना पर ऊँची चोटी (शिखर ) होता है। मध्य में एक गृभ गृह होता है जिसके चारों और परिक्रमा (प्रदक्षिणा) पथ होता है। नागर शैली के मंदिरों में मंदिर परिसर में कोई पानी की टंकी या जलाशय मौजूद नहीं होता। इनकी तीन उपशैलियाँ है जो निम्न प्रकार है –
(क) पंचायतन शैली – इस मंदिर में एक मुख्य मंदिर होता है तथा चार अन्य मंदिर होते हैं।
(ख) एकायतन शैली – इस मंदिर में एक गर्भ गृह होता है, गर्भ गृह के आगे सभामंडप होता है तथा सभामंडप के आगे द्वारमंडप होता है।
(ग) महामारु / गुर्जर प्रतिहार शैली – इसमें अश्लील मूर्तियों का निर्माण होता है।
द्रविड़ शैली –
द्रविड़ शैलीकी शुरुआत 8वीं शताब्दी में हुई थी और यह 18वीं शताब्दी तक दक्षिण भारत में रही। इसमें मंदिर का आधार वर्गाकार होता है जिसमे गर्भगृह के ऊपर गुम्बदाकार सरंचना पर पिरामिडनुमा शिखर होता है। इनका प्रांगण बड़ा होता है जिसमे के छोटे मंदिर, कक्ष तथा जलकुंड होते है। इन मंदिरों के प्रांगण में विशाल दीप स्तंभ और ध्वज स्तंभ होते है तथा इन मंदिरों में जटिल नक्काशी और मूर्तियां होती हैं। इन मंदिरों के प्रवेश द्वार को “गोपुरम” कहा जाता है। तंजौर का वृहदेश्वर मंदिर शैली का बेहतरीन उदहारण है।
बेसर शैली –
नागर और द्रविड़ शैली के मिश्रित रूप को वेसर या बेसर शैली कहा गया है। यह सरंचना में द्रविड़ शैली का तथा रूप में नागर शैली जैसी होती है। यह शैली चालुक्य वंश द्वारा मध्य भारत में फैली थी इसलिए इसे “चालुक्य शैली” भी कहते हैं।
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